बुधवार, 14 दिसंबर 2011

असुविधा: जिन रगों में में बहते थे अरमान से

असुविधा: जिन रगों में में बहते थे अरमान से

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रहनुमा गुमराह हो बेशक मगर ,
खेलेंगे ये खेल हम जी-जान से !!

पूरी ग़ज़ल में यह शेर एक शम्मा की तरह है जैसे जिसे यकायक बिजली चले जाने के बाद कोई जलाकर रख गया हो ! यह उजाला हमें हमारी पहचान से जोड़े रखेगा !
इस ग़ज़ल की खासियत यह है कि सभी शेर एक ही भाव-भूमि पर कहे गए हैं ! बहुत बहुत बधाई बुधवार जी और अशोक जी का धन्यवाद !

सोमवार, 28 नवंबर 2011

असुविधा: ओबामा के रंग में यह कौन है- लीलाधर मंडलोई

असुविधा: ओबामा के रंग में यह कौन है- लीलाधर मंडलोई: ख्यात और अब वरिष्ठ हो चले कवि लीलाधर मंडलोई की यह कविता कल भाई कुमार मुकुल की फेसबुक वाल पर पढ़ी. पढने के बाद जिस कदर रोमांचित हुआ, म...

सोमवार, 21 नवंबर 2011

न मिले 
मुझे कुछ ऐसा 
जो अपने साथ लाता हो 
खो जाने का भय ,
तुम भी नहीं !
किसी के जाने के बाद -
बड़ा  हो जाता है घर, आँगन ,
लम्बी हो जाती है 
कपडे सुखाने की रस्सी ,
बर्तन फालतू ,
कम हो जाती हैं लेकिन 
आँगन की चिड़ियाँ ,
तुलसी की पत्तियाँ ,
अगरबत्तियाँ अधजली ,
भिखारी की टेर !
दूध का ,धोबी का हिसाब 
अब डायरी पे नहीं लिखा जाता है ,
अखबार दो और लगा लिए हैं 
ज्यादा आया है इस बार बिजली का बिल ,
फोन कटवा दिया है !

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

तसल्ली


सोंचता हूँ कि--
कविता की जगह 
एक चित्र बना दूँ , 
जिसमें फूल हों ,पत्तियाँ हों
और इसी किस्म की तमाम चीज़ें 
कुछ इस ढंग से रखूँ 
कि खाली जगहों के आकार 
उन चीज़ों से मिलते-जुलते हों 
जिनकी ज़रूरत 
रोटी खाने के बाद पैदा होती है ,
और जिनका देखा जाना 
बहुतों में तसल्ली पैदा करता है ,
शायद इस तसल्ली के बदले 
लोग मुझे रोटी देदें !