सोंचता हूँ कि--
कविता की जगह
एक चित्र बना दूँ ,
जिसमें फूल हों ,पत्तियाँ हों
और इसी किस्म की तमाम चीज़ें
कुछ इस ढंग से रखूँ
कि खाली जगहों के आकार
उन चीज़ों से मिलते-जुलते हों
जिनकी ज़रूरत
रोटी खाने के बाद पैदा होती है ,
और जिनका देखा जाना
बहुतों में तसल्ली पैदा करता है ,
शायद इस तसल्ली के बदले
लोग मुझे रोटी देदें !
कुछ छुपा हुआ सा सन्देश जो जाहिर भी होता है .......बहुत खूब
जवाब देंहटाएंजिनकी ज़रूरत
जवाब देंहटाएंरोटी खाने के बाद पैदा होती है ,
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शायद इस तसल्ली के बदले
लोग मुझे रोटी देदें !
कमाल है मिसिर जी ! लौकिक व्यापार का पोस्ट मार्टम कर दिया आपने तो.
..................हाँ ! मैंने भी देखे हैं कुछ चित्र ...जो कविता बिलकुल नहीं हैं ....पर कविता के नाम पर बिकते हैं .....और जो सिर्फ रोटी का ज़रिया हैं. मैं औरों की तरह नफ़रत नहीं करता इस रोटी से ...हाँ ! उदास ज़रूर हो जाता हूँ ...और कभी-कभी टपक पड़ते हैं कुछ बूँद आँसू.........रोटी का व्यापार अब भी चल रहा है .........
एक पूरा कमरा किताबों से भरा हुआ,
जवाब देंहटाएंएक खाली टोकरी रोटियों वाली,
क्या 'ज्ञान' लूँ इन किताबों से,
जिससे मेरी टोकरी रोटियों से भर जाए,
जिससे मुझे और किताबें बेचने का कोई तनाव न हो?
(Translated from Punjabi)
-मूल लेखक : शाइस्ता हबीब (१९४९ में सियालकोट में जन्मीं उर्दू में कविता रचती हैं रेडियो पकिस्तान में प्रोडियूसर हैं)