बुधवार, 14 दिसंबर 2011

असुविधा: जिन रगों में में बहते थे अरमान से

असुविधा: जिन रगों में में बहते थे अरमान से

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रहनुमा गुमराह हो बेशक मगर ,
खेलेंगे ये खेल हम जी-जान से !!

पूरी ग़ज़ल में यह शेर एक शम्मा की तरह है जैसे जिसे यकायक बिजली चले जाने के बाद कोई जलाकर रख गया हो ! यह उजाला हमें हमारी पहचान से जोड़े रखेगा !
इस ग़ज़ल की खासियत यह है कि सभी शेर एक ही भाव-भूमि पर कहे गए हैं ! बहुत बहुत बधाई बुधवार जी और अशोक जी का धन्यवाद !