मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

बे-चेहरा ख़ाब

ये रात-ख़ुद भी नहीं सोती 
करवटें बदलती रहती है 
और एक 
बे-चेहरा ख़ाब 
बेचैन-ओ-परेशां 
भटकता रहता है 
करवट-दर-करवट 
ज़िंदगी के तिलस्मी 
आइनाघर में ,
ख़यालों की भीड़ में
गुम हो चुके उस 
चेहरे की खोज में 
जो कभी उसका था !

हरेक आइना 
उसे एक चेहरा 
दिखाता है 
जिसे देख वह कुछ 
ठिठकता है 
मगर फिर 
आगे बढ़ जाता है !

एक रात मैंने उसे 
रोक कर पूछा -
मुद्दतों हुए तुम्हें 
यूहीं भटकते ,
और ये आईने
तुम्हारे चेहरे की 
ठीक ठीक नक़ल भी 
अब तक न बना पाए ,
पुराने पड़ चुके उस
चेहरे को आखिर तुम 
कैसे पहचानोगे ,
अब तक तो 
टूट फूट घिस कर 
कितना कुछ 
बदल चुका होगा वह !

वह बोला -
मेरे चेहरे की पेशानी पर 
मुसीबतों के बोसे का 
स्याह निशान है 
वह न बदला होगा 
उसी से पहचानूँगा,
आम आदमी की
ज़िंदगी के ख़ाब का
चेहरा जो ठहरा !!

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

अब हासिल-ए-सौदा-ए-खाम

क्या जाने इस तड़प का कुछ होगा असर भी,
मझधार में ही डूब न जाये ये लहर भी !


साहिल से लग के बैठा हूँ क्या जानिए कब वो,
उस पार से आवाज़ दे 'अब आओ इधर भी '!


यूं ही नहीं मिला है इन्हें ताब-ए-नज्ज़ारा ,
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी !


दिल से ही निकल आएंगे हर बात के मानी ,
कुछ देर को रक्खो ज़रा तुम दिल पे नज़र भी !


फिर हासिल-ए-सौदा-ए-खाम ये रहा 'मिसिर',
दिल भी गया,सर भी गया और अबके जिगर भी !