मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

बे-चेहरा ख़ाब

ये रात-ख़ुद भी नहीं सोती 
करवटें बदलती रहती है 
और एक 
बे-चेहरा ख़ाब 
बेचैन-ओ-परेशां 
भटकता रहता है 
करवट-दर-करवट 
ज़िंदगी के तिलस्मी 
आइनाघर में ,
ख़यालों की भीड़ में
गुम हो चुके उस 
चेहरे की खोज में 
जो कभी उसका था !

हरेक आइना 
उसे एक चेहरा 
दिखाता है 
जिसे देख वह कुछ 
ठिठकता है 
मगर फिर 
आगे बढ़ जाता है !

एक रात मैंने उसे 
रोक कर पूछा -
मुद्दतों हुए तुम्हें 
यूहीं भटकते ,
और ये आईने
तुम्हारे चेहरे की 
ठीक ठीक नक़ल भी 
अब तक न बना पाए ,
पुराने पड़ चुके उस
चेहरे को आखिर तुम 
कैसे पहचानोगे ,
अब तक तो 
टूट फूट घिस कर 
कितना कुछ 
बदल चुका होगा वह !

वह बोला -
मेरे चेहरे की पेशानी पर 
मुसीबतों के बोसे का 
स्याह निशान है 
वह न बदला होगा 
उसी से पहचानूँगा,
आम आदमी की
ज़िंदगी के ख़ाब का
चेहरा जो ठहरा !!

13 टिप्‍पणियां:

  1. वह बोला -
    मेरे चेहरे की पेशानी पर
    मुसीबतों के बोसे का
    स्याह निशान है
    वह न बदला होगा
    उसी से पहचानूँगा !

    क्या बात है ....मुसीबतों के चुंबन का निशान ....
    बहुत खूब ....!!

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  2. आद. श्री मिसिर जी,
    बहुत कम ब्लॉगर्ज़ भाषा की इतनी शुद्धता को निभा पाते हैं। आपने वाक्य और शब्द क्या... अक्षर-अक्षर तक को साधकर रखा है, ऐसे में फिर बहकने की संभावना ही कहाँ रह जाती है...है कि नहीं?

    ख़ुशी हुई आपके घर आकर!

    मिसिर जी... एक विनम्र अनुरोध कि टेम्पलेट का कालापन आँखों पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है...चौंधिया रही हैं...जैसे-तैसे मिचमिचाकर पढ़ लिया है, ऐसे में ज़्यादा देर ठहरने के लिए आँखें राज़ी नहीं हो रही हैं...दिल तो कुछ और देर तक रुकने को कह रहा है।

    आशा है, आँख और दिल का वैचारिक मिलन-बिन्दु शीघ्र तलाश लेंगे आप...तथास्तु!

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  3. पुनश्च, कृपया बताएँ कि क्या कमलेश भाई से मुलाक़ात होती है आपकी?मेरा मतलब- कमलेश मौर्य ‘मृदुल’...!

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  4. आम आदमी का चेहेरा जो ठेहेरा मुसीबतों का पसंदीदा । बढिया रचना ।

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  5. मिसिर जी !
    नमस्कार, आज पहली बार आपके घर आना हुआ, अच्छा लगा आकर ....अब तो मुलाक़ात होती रहेगी......

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  6. wo bola mere chehre ki peshaani.........kaale shyaah nishaan...unhi se pehchaanugaaa...........
    Misir ji.......namste...:)
    in lines ko naa jaane kitni baar dohrya maine dimaag me......
    bahut achchi...ik kaamyaab rchnaa..

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  7. ..
    misir ji.....
    mujhe..aapkaa blog ka background bahut psnd aay

    ye ik baar me baadhne wala he.......soch he apni apni..kuch bhi bnaa lijiye in golon ko........
    kabhii lg rhaa tha..sara brhmaand hi santri ho gya he..aur saare sayaare aur sitaare bhi santriii........
    fir ik baar me lgaa..aasmaan se kinnu gir rhe hain...:)
    aur kabhi kabhi ye bhram huyaa ke.....genden hain santrii rang ki....
    aur dhyaan se dekhaa to lgaa...kisi ne...dbaa ke ungli ..microscope ke niche rkh di he..aur saari koshikaayen saaf dikh rhi hain...jyun koi...apne hathon ki lakeron ko ache se prkhna chahtaa ho..........
    aur bhi jaane kya kya
    bahut pyara selection

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  8. मेरे चेहरे की पेशानी पर
    मुसीबतों के बोसे का
    स्याह निशान है
    वह न बदला होगा
    उसी से पहचानूँगा !

    bahut achche tarike se badi baat kah gaye aap misr ji,bahut badhai

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  9. पुराने पड़ चुके उस
    चेहरे को आखिर तुम
    कैसे पहचानोगे ,
    अब तक तो
    टूट फूट घिस कर
    कितना कुछ
    बदल चुका होगा वह !
    ...samay ke saath badle parivesh ka sundar chitran.
    Haardik shubhkamnayen

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  10. आपने एक ऐसी कविता लिखी है , जो हम सब से जुडी हुई है . और याथार्थ को दर्शाती है .. आपके लेखन को सलाम ..

    बधाई !!
    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

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