सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

अब हासिल-ए-सौदा-ए-खाम

क्या जाने इस तड़प का कुछ होगा असर भी,
मझधार में ही डूब न जाये ये लहर भी !


साहिल से लग के बैठा हूँ क्या जानिए कब वो,
उस पार से आवाज़ दे 'अब आओ इधर भी '!


यूं ही नहीं मिला है इन्हें ताब-ए-नज्ज़ारा ,
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी !


दिल से ही निकल आएंगे हर बात के मानी ,
कुछ देर को रक्खो ज़रा तुम दिल पे नज़र भी !


फिर हासिल-ए-सौदा-ए-खाम ये रहा 'मिसिर',
दिल भी गया,सर भी गया और अबके जिगर भी !


1 टिप्पणी:

  1. बेहतरीन, ख़ास तौर पे मतला !
    इसी मीटर में मेरी प्रिय ग़ज़ल बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल...

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